जन्म पत्रिका देखने की विधि -

सिद्धांत ज्योतिषाचार्य श्रीपंडित रामदयाल मैदुली जी की श्री पीतांबर पंचांग के विषय में सम्मति

श्री सिद्धिदात्री पंचांग का 60 वर्षीय केतकी चित्रापक्ष दृग्गणितीय " श्री पीतांबर पंचांग एवं फलित ज्योतिष सार का अवलोकन किया।प्रायः सभी करण ग्रंथों में केतकी गणित सूक्ष्म है। ज्योतिष शास्त्र में दृग्गणित मान्य होता है। इसका प्रमाण सूर्यसिद्धांत मध्यमाधिकार का "युगानां परिवर्तेन कालभेदो sत्रकेवलम्।।"श्लोक स्पष्ट करता है। युग परिवर्तन के कारण दृक् सिद्धता की नितांत आवश्यकता होती है। अतः स्थानीय अक्षांश पर निर्मित शास्त्र सम्मत इस पंचांग का उपयोग कर पंडितजन लाभान्वित होंगे एवं यह पंचांग समाज के लिए हितकर सिद्ध होगा। इस पुनीत कार्य के लिए श्रीयुत पंडित विनोद बिजल्वाण जी को मेरी हार्दिक शुभकामना। सिद्धांतज्योतिषाचार्य

पंडित रामदयाल मैदुली

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य श्री बद्रीनाथ वेद वेदांग संस्कृत महाविद्यालय जोशीमठ जिला चमोली

जन्म पत्रिका देखने की विधि -

यहां आगे ग्रहों की परस्पर मित्र, शत्रुता, उच्च राशि , नीच राशि, स्वग्रही आदि का वर्णन परिचय के रुप में दिया गया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अमुक ग्रह शुभ फलदायक है या अशुभ फलदायक है। यदि ग्रह अपनी राशि, मित्र की राशि उच्च का, शुभ स्थान में, शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो तत्सम्बन्धी भाव का शुभ फल प्रदान करता है एवं यदि किसी भाव का अधिपति नीच का हो,शत्रु के घर में स्थित हो, क्रूर-पाप ग्रह द्वारा देखा जाता हो तो वह ग्रह तत्सम्बन्धी भाव का अशुभ फल प्रदान करता है। ग्रह शुभ या अशुभ फल किस समय प्रदान करेगा यह इस बात पर निर्भर है कि विंशोत्तरी दशा में उस ग्रह की अन्तर्दशा किस अवधि में आयेगी। पंचांग के प्रारम्भ में ग्रहों का भाव में फल तथा भावाधिपों का फल दिया गया है इसके संयुक्त फल तथा उच्च नीच मित्र शत्रु आदि का सम्यक विचार कर किस दशा काल में उक्त ग्रह की दशा होगी उसके अनुसार उस अवधि में शुभ एवं अशुभ फल देगा। आगे समझाने के दृष्टिकोण से कुछ मुख्य भावों का फल कथन करने का वर्णन किया गया है।

परिचय-

राशियां -

राशियां 12 होती हैं - 1- मेष, 2- वृष , 3- मिथुन, 4- कर्क, 5- सिंह, 6- कन्या, 7- तुला, 8- वृश्चिक, 9- धनु, 10- मकर, 11- कुम्भ, 12- मीन । मेषको 1 अंक से, वृष को 2 के अंक से इत्यादि उपरोक्त क्रमानुसार व्यक्त करते हैं।

ग्रह-

ग्रह नौ हैं- 1-सूर्य, 2-चन्द्र, 3-मंगल, 4-बुध, 5-बृहस्पति, 6- शुक्र, 7- शनि, 8-राहु, 9-केतु। आधुनिक खगोलज्ञों ने हर्षल, नेपच्यून व प्लूटो ये तीन ग्रह और ढूंढे हैं, किन्तु इनके फलित में उपयोग के लिये पर्याप्त अध्ययन आवश्यक है एवं ये पृथ्वी से अधिक दूरी पर होने से व इनके भगणकाल अधिक होने से फलित में अल्प सहायक हैं, जब कि राहु, केतु ग्रह न होते हुये भी ग्रहों की श्रेणी में रखे गये; क्योंकि फलित में ये पूर्ण उपयोगी हैं।

राशि के स्वामी-

मेष तथा वृश्चिक राशियों का स्वामी मंगल है। वृष तथा तुला राशि का स्वामी शुक्र है। कन्या तथा मिथुन राशि का स्वामी बुध है। कर्क राशि का स्वामी चन्द्रमा तथा सिंह राशि का स्वामी सूर्य है। धनु तथा मीन राशि का स्वामी वृहस्पति एवं मकर तथा कुम्भ राशि का स्वामी शनि है।

दिशा के स्वामी-

सूर्य पूर्व दिशा का स्वामी है, शुक्र आग्नेय दिशा का पूर्व-दक्षिण के मध्य , मंगल दक्षिण दिशाका स्वामी है, राहु नैऋत्य दक्षिण-पश्चिम के मध्य दिशा का स्वामी तथा शनि पश्चिम दिशा का स्वामी है। चन्द्रमा वायव्य का पश्चिम व उत्तर के मध्य, बुध उत्तर का तथा वृहस्पति ईशान उत्तर-पूर्व के मध्य दिशा का स्वामी है।

क्षीण चन्द्रमा्

क्षीण चन्द्रमा-- कृष्ण पक्ष की अष्टमी के बाद शुक्ल पक्ष की अष्टमी तक चन्द्रमा क्षीण कहलाता है । इसके अलावा चन्द्रमा पूर्ण कहा जाता है ।

पाप ग्रह

पाप ग्रह-- सूर्य क्षीण चन्द्रमा, मंगल, शनि, राहु ,केतु पाप ग्रह हैं। बुध किसी भी पाप ग्रह के साथ होने पर पाप संज्ञक हो जाता है अन्यथा बुध शुभ ग्रह है ।

शुभ ग्रह-

शुभ ग्रह-- पूर्ण चन्द्र,बुध, वृहस्पति, शुक्र शुभ ग्रह है।

बलवान ग्रह-

बलवान ग्रह-- शनि से मंगल, मंगल से बुध,बुध से वृहस्पति, वृहस्पति से शुक्र, शुक्र से चन्द्रमा,चन्द्रमा से सूर्य बलवान है। राहु सबसे दुगुना बलवान है।

उच्च राशि के ग्रह--

उच्च राशि के ग्रह-- मेष राशिका सूर्य,वृष का चन्द्रमा, मकर का मंगल, कन्या राशि का बुध,कर्क का वृहस्पति, मीन का शुक्र, तुला राशि का शनि, मिथुन का राहु व धनु राशि में स्थित केतु उच्च का होता है। उच्च राशि से सातवीं राशि नीच की होती है, इसका तात्पर्य यह है कि

नीच राशि के ग्रह--

नीच राशि के ग्रह-- तुला राशि का सूर्य, वृश्चिक का चन्द्रमा,कर्क का मंगल, मीन का बुध, मकर का बृहस्पति, कन्या का शुक्र, मेष का शनि, धनु का राहु तथा मिथुन का केतु नीच राशि के होते हैं।

ग्रह के परमोच्चांश एवं परम नीचांश-

ग्रह के परमोच्चांश एवं परम नीचांश-- जितने अंश पर ग्रह परम उच्च होता है उतने ही अंश पर सप्तम राशि में परम नीच होता है। ग्रहों के परमोच्चांश, परम नीचांश सूर्य 10,चन्द्र 3, मंगल 28,बुध 15, वृहस्पति 5, शुक्र 27,शनि 20, राहु 20, केतु के 6 होते हैं ।

ग्रह की मूल त्रिकोण राशि-

ग्रह की मूल त्रिकोण राशि-- सिंह राशि का सूर्य, वृष का चन्द्रमा, मंगल मेष का , बुध कन्या का , वृहस्पति धनु राशि का, शुक्र तुला राशि का , शनि कुम्भ का, राहु कुम्भ का व केतु सिंह राशि का मूल त्रिकोण का कहलाता है, इनका प्रभाव उच्च के समान होता है। राहु,केतु की स्वगृही,उच्च,नीच,मूलत्रिकोण राशि-- कन्या का राहु स्वगृही होता है व मिथुन उच्च राशि। धनु राहु की नीच राशि है व मूलत्रिकोण राशि मीन राहु की है। केतु मीन का स्वगृही व धनु का उच्च होता है।

ग्रहों के मित्र शत्रु-

सूर्य के चंद्रमा मंगल एवं बृहस्पति मित्र हैं। बुध न शत्रु है ना मित्र अर्थात सम है। सूर्य के शुक्र एवं शनि शत्रु हैं ।इसी प्रकार चंद्रमा के सूर्य एवं बुध मित्र हैं तथा मंगल- बृहस्पति- शुक्र- शनि सम हैं।मंगल के सूर्य - चंद्र - बृहस्पति मित्र हैं। शुक्र एवं शनि सम तथा बुध शत्रु है। बुध के सूर्य एवं शुक्र मित्र हैं। मंगल- बृहस्पति - शनि सम हैं तथा चंद्रमा शत्रु है। बृहस्पति के सूर्य- चंद्रमा एवं मंगल मित्र हैं। शनि सम है। बुध एवं शुक्र शत्रु हैं। शुक्र के बुध एवं शनि मित्र हैं। मंगल एवं बृहस्पति सम हैं। सूर्य एवं चंद्रमा शत्रु हैं।शनि के बुध एवं शुक्र मित्र हैं। बृहस्पति सम सूर्य - चंद्र एवं मंगल शत्रु हैं। राहु के शुक्र एवं शनि मित्र हैं ।बृहस्पति एवं बुध सम हैं। एवं सूर्य - चंद्रमा - मंगल शत्रु हैं। इनका स्पष्टीकरण आगे चक्र में भी दिया गया है।

तात्कालिक मित्र एवं शत्रु ग्रह-

अपने स्थान से 2-3-4-10-11-12 (दूसरे- तीसरे- चौथे- दशवें-ग्यारहवें एवं बारहवें) स्थानों में स्थित ग्रह परस्पर तात्कालिक मित्र होते हैं तथा 1-5-6-7-8-9वें स्थानों में स्थित ग्रह तात्कालिक शत्रु होते हैं।

राशियों की चर - स्थिर- द्विस्व भाव संज्ञा-

मेष - कर्क- तुला एवं मकर राशियों की चर संज्ञा है वृष- सिंह - वृश्चिक - कुंभ राशियों की स्थिर संज्ञा है। मिथुन- कन्या- धनु एवं मीन राशियों की द्विस्व भाव संज्ञा है। मेष- सिंह - कन्या- तुला- मकर एवं धनु राशियां अल्पप्रजा राशि हैं। वृष- मिथुन व कुंभ मध्यप्रजा राशि हैं। कर्क- वृश्चिक व मीन बहुप्रजा राशि हैं। मेष- वृष- कर्क- मकर- मिथुन - धनु राशियां रात्रि बली हैं। शेष राशियां दिन में बलवान हैं। मिथुन- सिंह- कन्या- तुला - वृश्चिक तोहफ कुंभ शीर्षोदय राशियां हैं। मीन उभयोदय राशि है। मेष- वृष- धनु व मकर पृष्ठोदय संज्ञक राशियां हैं। स्मरण रहे कि बिना उपरोक्त बातों के ज्ञान के सही फलित नहीं कहा जा सकता। अतः फलित समझने के लिए एवं फलित कहने के लिए उपरोक्त सभी विषयों - संज्ञाओं का स्मरण रहना आवश्यक है एवं इसके अतिरिक्त आगे भी जो ग्रहों के बारे में बातें बताई जाएंगी उन सभी को ठीक प्रकार से स्मण करना आवश्यक है। आगे कुंडली की विवेचना करते समय फलित जब बताया जाएगा तो उपरोक्त सभी बातें ध्यान में रहनी आवश्यक होंगीं अन्यथा फलित नहीं समझा जा सकेगा।

किस ग्रह से किस विषय का विचार करना-

सूर्य से आत्मा, स्वभाव, शरीर, पिता एवं सामर्थ्य का विचार करना चाहिए। चंद्रमा से प्रसन्नता, माता, संपत्ति, वृद्धि, राजा, यश और चित्त का विचार करना चाहिए। मंगल से उत्साह, पराक्रम, धन, रोग, पुत्र, भाई, धैर्य, विजय, बंधु - बांधव, युद्ध, भूमि, क्रोध का विचार करना चाहिए। बुध से विद्या, विवेक, मित्र, मामा, वाणी, गणित, वेदांत, संतान, वाणिज्य, कर्म, आजीविका का विचार करना चाहिए। बृहस्पति से पुत्र, मंत्र, बुद्धि, धन, शरीर की पुष्टता, धर्म, शास्त्र ज्ञान का विचार करना चाहिए। शुक्र से स्त्री, वाहन , भूषण, सुख, गायन, काव्य, वशीकरण, गारुड़ी विद्या का विचार करना चाहिए। शनि से जीवन, मृत्यु, (आयु ),विपत्ति, दरिद्र्य, वात रोग, भय, भैंस, मोह, लोभ का विचार करना चाहिए। राहु से खेती, दादा, यश, प्रतिष्ठा का विचार करना चाहिए।

कुंडली के द्वादश भाव से किस चीज का विचार करना-

कुंडली के प्रथम भाव - लग्न से रंग, रूप ,स्वास्थ्य ,सुख, दुखः का विचार प्रथम भाव से करते हैं। द्वितीय भाव से धन, कुटुंब व परिवार का विचार करते हैं। तृतीय भाव से भाई-बहन, पराक्रम का विचार करते हैं। चतुर्थ भाव से सुख, गृह,भूमि,वाहन तथा माता का विचार करते हैं। पंचम भाव से संतान, विद्या, बुद्धि का मुख्य रूप से विचार करते हैं। छठे भाव से मामा, गाय, भैंस, चतुष्पाद, रोग, शत्रु, युद्ध का मुख्य विचार करते हैं। सप्तम भाव से स्त्री, व्यापार, गमनागमन का विचार करते हैं। अष्टम भाव से आयु,भय का विचार मुख्यतया करते हैं। नवम भाव से मुख्यतः धर्म, तीर्थ, भाग्य का विचार करते हैं। दशम भाव से आजीविका, कर्म, पितृपक्ष, निवास, पद की प्राप्ति का विचार करते हैं। लाभ भाव का विद्या व संतान अर्थात पंचम भाव पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार नवम भाव का भ्रातृ भाव पर प्रभाव पड़ता है। आशय यह है कि एक भाव अपने से सप्तम भाव पर प्रभाव डालता है। क्योंकि उसमें स्थित ग्रह की पूर्ण दृष्टि होती है। आय का मुख्य तया विचार एकादश भाव से करते हैं। बारहवें भाव से व्यय का विचार मुख्य तया करते हैं। व्यय इच्छित है या अनइच्छित यह भी देखा जाता है।

राशि से शरीर के भाग का ज्ञान-

मेष राशि व लग्न से शिर, वृष राशि व धन स्थान से मुख, मिथुन व तृतीय भाव से बाहु, कर्क व चौथे भाव से छाती, सिंह व पंचम भाव से हृदय, छठे स्थान व कन्या राशि से कमर, तुला व सप्तम भाव से पेट, वृश्चिक व अष्टम भाव से गुह्य, धनु व नवम भाव से जांघ, मकर व दशम भाव से घुटना, कुंभ व एकादश भाव से टांग, मीन व द्वादश भाव से पैर का विचार करते हैं।

ग्रह अस्त एवं ग्रहों की दृष्टियां-

सूर्य के निकट आने पर ग्रह अस्त कहलाता है। सूर्य के तेज में उसका अपना प्रभाव क्षीण हो जाता है। ग्रह सूर्य के कितने अंश निकट आने पर अस्त होता है यह प्रत्येक ग्रह के लिए अलग-अलग होता है तथा स्थान के अक्षांश पर निर्भर करता है। यह पुराने करण ग्रंथों में कही गई कालांश पद्धति से स्थूल आता है जबकि केतकी आदि करण ग्रंथों में कही गयी उन्नतांश पद्धति द्वारा सूक्ष्म अस्तकाल व उदय कालआता है। श्री सिद्धिदात्री पंचांग में ग्रहों के वक्र मार्ग एवं अस्तोदय काल सूक्ष्म गणना पद्धति द्वारा दिए जाते हैं। शनी अपने स्थान से 3 एवं 10 वें स्थान को, बृहस्पति 5 एवं 9 वें स्थान को, मंगल चौथे (4)एवं आठवें(8) स्थान को, तथा सप्तम स्थान को सभी ग्रह पूर्ण दृष्टि से देखते हैं।


फलित विवेचन

ऊपर लग्न कुंडली के द्वादश भाव एवं जन्मकुंडली प्रथम जिसका कि कुंभ लग्न है एवं जन्म कुंडली द्वितीय जिसका की धनु लग्न है दर्शाई गई हैं।इनके आधार पर फलित विवेचना करने से पूर्व कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी होना आवश्यक है ताकी ताकी फलादेश का निष्कर्ष निकालते समय सुविधा हो। दो ग्रह एक दूसरे की राशि में बैठे हों या एक साथ एक राशि में हों यह दो प्रकार का स्थान संबंध ग्रहों का होता है। दो ग्रह एक दूसरे को परस्पर देखते हों या एक ग्रह देखता हो दूसरा ना देखे यह भी दो प्रकार का ग्रहों का दृष्टि संबंध होता है। इस प्रकार यह चार प्रकार का संबंध है। यदि किसी राशि पर पाप ग्रह की दृष्टि ना हो तथा वह राशि अपने स्वामी से युक्त हो या उसके स्वामी की उस पर पूर्ण दृष्टि हो तो वह राशि ब लवान होती है। उस राशि का स्वामी पाप ग्रह भी क्यों ना हो उसकी दृष्टि से बलवान होगी। यदि राशि किसी ग्रह से युक्त व दृष्ट ना हो तो अपने स्वभाव के अनुरूप फल देती है। शुभ ग्रह की दृष्टि से पाप भी शुभ फल देता है। इसी प्रकार पाप दृष्टि से शुभ ग्रह भी अशुभ फल देता है। इस प्रकार जो भाव अपने स्वामी से दृष्ट वा युक्त अथवा शुभ ग्रह से दृष्ट या युक्त होता है उस भाव संबंधित फल की वृद्धि होती है। पाप ग्रह की दृष्टि व युक्त होने से संबंधित भाव के फल की हानि होती है। 6- 8- 12वें भाव में विपरीत फल होता है। जिस ग्रह पर वृहस्पति की पूर्ण दृष्टि पड़ती है वह अनिष्ट फल नहीं देता। अशुभ ग्रह पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो शुभ फल देता है। जिस ग्रह पर पाप ग्रह या उसके शत्रु ग्रह की दृष्टि हो वह फल नहीं देता। यदि ग्रह अस्त,नीच या शत्रु के घर में हो तो फल नहीं देता। उच्च या अपनी राशि का ग्रह 6-8-12वें भाव में भी स्थित हो तो अशुभ फल नहीं देता। यदि किसी भाव का स्वामी 6-8 या 12वें भाव में होता है तो उस भाव की हानि होती है लेकिन 6- 8 -12वें भाव में यदि ग्रह उच्च राशि का या अपनी राशि में हो तो अनिष्ट फल नहीं देता। अर्थात उस भाव की हानि नहीं करता। किस भाव का स्वामी कौन ग्रह है यह इस बात से पता चलता है कि संबंधित भाव में कौन सी राशि है। इस राशि का स्वामी ग्रह उस भाव का स्वामी होगा। यदि उच्च या स्वक्षेत्री ना हो तब जिस भाव का स्वामी 6-8 या 12वें भाव में बैठेगा तो उस भाव की हानि करेगा। बृहस्पति उच्च का, अपनी राशि या मित्र की राशि या वर्गोत्तम नवांश का होकर अशुभ स्थान में भी स्थित हो तो भी अशुभ फल नहीं देता। उच्च का, स्वक्षेत्री या मूल त्रिकोण का ग्रह अशुभ फल नहीं देता। मित्र के नवमांश में भी स्थित ग्रह बलवान होता है।

जन्म कुण्डली प्रथम देखें -

जन्म कुंडली प्रथम में नवम भाव का स्वामी शुक्र दशम भाव में दशम भाव के स्वामी मंगल के साथ स्थित है अर्थात नवम भाव का और दशम भाव का अधिपति एकसाथ दशम भाव में स्थित है। यह आजीविका के लिए शुभ योग बनाता है क्योंकि नवम भाव भाग्य स्थान होता है अर्थात भाग्य का साथ दशम स्थान को मिलने से आजीविका के लिए श्रेष्ठ योग बन जाता है। इसी प्रकार चतुर्थ भाव माता - सुख- संपत्ति-वाहन का होता है। जन्म कुंडली प्रथम में चतुर्थ भाव का स्वामी शुक्र दशम स्थान में स्थित है तथा चतुर्थ भाव को पूर्ण दृष्टि से सप्तम दृष्टि से देख रहा है अर्थात जातक संपत्ति- वाहन - भूमि सुख से युक्त होता है। पंचम भाव में मिथुन राशि स्थित है। इसका अधिपति बुध एकादश भाव में स्थित होकर सप्तम दृष्टि से पंचम भाव को देख रहा है। अतः ऐसा जातक विद्यावान- बुद्धिमान होता है। क्योंकि बुध बुद्धि का कारक ग्रह है। सप्तम भाव का स्वामी सूर्य एकादश भाव में गुरु के घर में स्थित है अतः पत्नी सुख की दृष्टि से ग्रह शुभ फल कारक है। पुनः पत्नी भाव पर बृहस्पति की पंचम दृष्टि भी पड़ रही है जो कि शुभ फल की वृद्धि करने वाली है।

जन्म कुंडली द्वितीय देखें-

प्रायः लोगों के प्रश्न आजीविका, विद्या, संन्तान एवं आर्थिक स्थिति के विषय में होते हैं। जन्म कुंडली द्वितीय में नवम स्थान का स्वामी पंचम भाव में उच्च का होकर स्थित है तथा दशम भाव का स्वामी चतुर्थ भाव में नीच का होकर बैठा है किंतु दशम भाव का स्वामी दशम भाव को पूर्ण सप्तम दृष्टि से देख रहा है तथा नवमेश उच्च का है अतः आजीविका के लिए जातक के ग्रह शुभ हैं। पंचम भाव का स्वामी पंचम भाव में अपनी राशि में स्थित है। अतः विद्या बुद्धि के लिए ग्रह शुभ हैं किंतु ऐसा जातक स्वभाव से हटीला भी होता है क्योंकि पंचम का स्वामी मंगल है एवं लग्न में शनि भी स्थित है। प्रायः देखा गया है कि यदि जातक शनि एवं मंगल दोनों से प्रभावित हो तो तकनीकी क्षेत्र में दक्ष होता है अर्थात तकनीकी शिक्षा प्राप्त करता है ।

नवम भाव का फलादेश -

नवम भाव का फलादेश -भाग्य स्थान का विचार सर्वप्रथम करना उचित है। क्योंकि भाग्य के होने से ही अन्य सुख संभव होता है। जिसका भाग्य ठीक होता है उसका सभी कुछ ठीक हो जाता है। नवम भाव से ही भाग्य का विचार करते हैं। सभी विचार करते समय सूत्र वही लागू होंगे जो पूर्व में लिखे हैं। जब भाग्य स्थान का स्वामी ग्रह केंद्र में 1-4-7-10 वें भाव में त्रिकोण में पांच वें या नौ वें भाव में हो अथवा धन भाव में हो तो वह मनुष्य भाग्यवान होता है। भाग्य स्थान का स्वामी उच्च का है या मित्र राशि में बैठा है या शत्रु राशि में बैठा है या नीच का है या त्रिक स्थान में है। स्वयं भाग्येश शुभ ग्रह है या पाप ग्रह है। इन सब बातों का विचार करना चाहिए। जिसके लग्न का स्वामी भाग्य स्थान में हो वह भाग्यवान होता है। जब भाग्येश शुभ ग्रहों से दृष्ट व शुभ ग्रहों से युक्त हो तो जातक भाग्यवान व धार्मिक प्रवृत्ति का होता है। यदि भाग्येश शनि हो तो 36 वर्ष में भाग्योदय जानना शुक्र से 25 वर्ष बृहस्पति से 16 वर्ष में सूर्य से 22 वर्ष में चंद्रमा से 24 वें वर्ष में मंगल से 28 वर्ष में व बुध से 32 वर्ष में भाग्योदय होता है। यदि भाग्य स्थान में शनि मंगल दोनों ग्रह हो तो पीठ पीछे भाई के लिए बाधक होता है। (यदि तृतीय भाव शुभ ग्रह से दृष्ट व युक्त ना हो तो) तथा नवम में शनि मंगल एक साथ जिस जातक के हों उस जातक के जन्म से पिता व माता को कष्ट होता है। यह कष्ट आर्थिक व विवाद से उत्पन्न हुआ भी हो सकता है। दशम भाव का स्वामी ग्रह नवम स्थान में हो तो जातक भाग्यवान होता है। नवम स्थान का स्वामी ग्रह दशम स्थान में हो तो भी जातक भाग्यवान होता है। यदि दशम स्थान का स्वामी नवम स्थान में तथा नवम स्थान का स्वामी दशम स्थान में हो तो यह भाग्यवान होता है। ऐसा व्यक्ति सर्व संपन्न होता है तथापि ग्रह मित्र के हैं या शत्रु के हैं यह विचार भी करना चाहिए। भाग्येश बलवान हो एवं शुभ ग्रह से दृष्ट हो ऐसा जातक भाग्यवान होता है। भाग्य स्थान में पापी ग्रहों भाग्येश नीच का हो या अस्त हो या शत्रु राशि में हो या पाप ग्रह से दृष्ट हो ऐसा व्यक्ति धर्महीन भाग्यहीन होता है। यदि भाग्य स्थान में पापी ग्रह भी उच्च राशि में हो अथवा मित्र की राशि में हो तो भी उत्तम फल देता है। पूर्व में ग्रहों की दृष्टि व स्थान सम्बंध बताए हैं यह देखना चाहिए कि भाग्य स्थान का किस स्थान से ज्यादा संबंध है उस स्थान की वृद्धि भाग्य से हो जाती है। यह एक सहायक सूत्र है। भाग्य स्थान या भाग्येश शुभ ग्रहों के प्रभाव में है तो पुण्य कर्म धार्मिक प्रवृत्ति का जातक होता है। पाप ग्रह होने से नास्तिक होता है। यदि वह शुभ व पाप दोनों ग्रहों के प्रभाव में हो तो ऐसे में ग्रहों के बल का अनुमान लगा कर देखना चाहिए कि कौन ज्यादा बली है।

पंचम भाव का फलादेश -

भाग्यस्थान के बाद यदि देखा जाए तो पंचम भाव ही अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि पंचम भाव जहां एक ओर बुद्धि- विद्या के विषय में जानकारी देता है। वहीं पंचम भाव से संतान का विचार भी किया जाता है। पंचम स्थान का स्वामी बली हो तो पंचम भाव से संबंधित फल की वृध्दि करताहै। यदि निर्बली हो तो पंचम भाव जन्य फलों की हानि करता है। पंचम स्थान का स्वामी ग्रह अपने घर में हो या उच्च का हो या मित्र का हो और शुभ ग्रह की पंचम स्थान पर या पंचमेश पर दृष्टि हो तो संतान होती है। पंचमेश या पंचम स्थान पर पुरुष ग्रह की दृष्टी होने से पुत्र संतान तथा स्त्री ग्रह की दृष्टि होने से कन्या संतान होती है । पंचम स्थान पर जिस संख्या की राशि हो उतने गर्भ होते हैं। पंचमेश पर जितने ग्रहों की दृष्टि हो उतने गर्भ होते हैं। पंचम भाव जन्य फल जानने हेतु बृहस्पति से पंचम स्थान का भी अवलोकन करना चाहिए। सप्तांश चक्र से भी संतान का विचार करना चाहिए। यदि पंचम स्थान में मंगल शत्रु राशि का स्थित हो तथा पंचमेश पर या पंचम स्थान पर शुभ ग्रह की दृष्टि ना हो तो संतान हानि पुत्र की हानि करता है। सामान्यतया दो पुत्र भी ऐसे जातक के होते हैं। यहां पर संतान विषय पर विशेष रूप से लिखते हैं, कारण की संतान की जिज्ञासा बहुत महत्वपूर्ण है, यदि किसी जातक की एक ही कन्या है या दो तीन कन्या हैं एवं पुत्र नहीं है तो पुत्र की प्राप्ति होगी या नहीं, ऐसा प्रश्न अनेकबार दैवज्ञ के सामने आ जाता है। ऐसे में उस जातक की सबसे छोटी कन्या की कुंडली में तृतीय भाव का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण होता है। जातक की सबसे छोटी कन्या की कुंडली में यदि तृतीय भाव पर शनि या मंगल की पूर्ण दृष्टि है और तृतीय भाव की राशि दृष्टि डालने वाले ग्रह शनि या मंगल की अपनी राशि नहीं है एवं वहां बृहस्पति की दृष्टि नहीं है तो उस कन्या के पीछे भाई नहीं होगा और यदि शनि मंगल दोनों की पूर्ण दृष्टि तृतीय भाव पर है तो उसके भाई का जन्म नहीं होगा। यह कहने में पुनः लिख दे कि यदि भाई हो भी गया तो या तो मृत्यु को प्राप्त होगा या अपंग हो जाएगा या जन्मजात अपंग होगा यह सम्भावना होती है। यदि यह बात सत्य नहीं निकले तो उसका कारण कुंडली में गलत लग्न होना भी हो सकता है। अतः पहले लग्न की जांच कर लेनी चाहिए। कोई भी ग्रह क्यों ना हो यह देखना चाहिए कि वह 28 अंश से अधिक तो नहीं है। ऐसे में त्रुटि हो सकती है। क्योंकि ग्रह के संधि के निकट आने से ग्रह अगली राशि का फल दे सकता है। अतः संधि के निकट होने पर संदेह हो जाता है। यदि जातक के पंचम भाव में बृहस्पति हो तो पुत्र प्राप्ति अवश्य होगी तथापि पुत्र प्राप्ति में विलंब के कारण पुत्र प्राप्ति की चिंता भी होती है। यदि पंचमेश त्रिक अर्थात छठे - आठवें या बारहवें भाव में हो तथा पंचम स्थान में सूर्य के होने से प्रथम पुत्र की हानि होती है। पंचम स्थान का स्वामी यदि 6 - 8 या बारहवें भाव में हो तो संतान की बाधा होती है । यदि पंचम स्थान का स्वामी केंद्र 1-4-7-10 या कोण 9 - पांचवें भाव में हो तो संतान की प्राप्ति होती है। पंचमेश नीच राशि का होकर 1- 6 - 8 या बारहवें भाव में हो तथा पंचम स्थान में केतु और बुध दोनों हो या शनि - बुध दोनों हों तो संतान बाधा होती है। यदि पंचम स्थान पर शनि - मंगल दोनों की दृष्टि हो तो संतान बाधा होती है। यदि पंचम स्थान में शनि - मंगल या सूर्य में से कोई भी एक ग्रह हो तो पुत्र हानि होती है। केतु पंचम स्थान में हो तो विलंब से ही सही किंतु पुत्र लाभ कराता है। यदि पंचम स्थान में कर्क या कुंभ का बृहस्पति हो तो संतान बाधा होती है।( पुत्र प्राप्ति में बाधक होता है। एक पुत्र उपाय से होता है) यदि मीन का बृहस्पति पंचम में हो तो अल्प संन्तान होती है एवं धनु का बृहस्पति होने से कष्ट युक्त संतान होती है। यदि किसी की संन्तान नहीं हो रही हो तो उसमें पति - पत्नी दोनों की कुंडलियों का अध्ययन करना चाहिए। उदाहरण के लिए पति की जन्म कुंडली में पंचमेश सूर्य अपने ही घर में मंगल के साथ हैं तथा शुक्र जो संतानोत्पत्ति की क्षमता का स्वामी है नपुंसक ग्रह बुध के साथ छठे स्थान में बैठा है। इसी व्यक्ति की पत्नी की जन्मकुंडली में चंद्रमा उच्च का होकर लाभ स्थान में है। तथा कोई विशेष संतान बाधक ग्रह इस व्यक्ति की पत्नी की कुंडली में नहीं है। अतः पुत्र प्राप्ति का ना होना पति की शारीरिक कमी हो सकता है ना की पत्नी की शारीरिक कमी, यह निष्कर्ष निकलता है। अब देखें कि पति की कुंडली में पंचमेश अपने ही घर में है अतः संतान प्राप्ति अवश्य होगी। किंतु अष्टमेश भौम भी पंचम स्थान में है अतः पुत्र की हानि भी अवश्य होगी। अतः चिकित्सा का सहारा पति को लेना चाहिए। पंचमेश बलवान है अतः पुत्र सुख होगा। यदि मंगल के कारण संतान की बाधा है तो 28 वर्ष तक, यदि बुध के कारण बाधा हो तो 32 वर्ष तक पूर्वोक्त ग्रहों के बताए वर्षों तक बाधा रहती है। तथापि प्रबल बाधा होने पर संतान का सुख कभी नहीं मिलता है। व्दितीय भाव का स्वामी तथा पंचम भाव का स्वामी बलवान ना हो तथा पंचम भाव पर पाप ग्रह की दृष्टि हो तो संतान नहीं होती है।यदि पंचमेश अस्त हो या पाप ग्रह की पंचमेश पर पूर्ण दृष्टि हो या पंचमेश 6 - 8 या बारहवें भाव में हो या पंचमेश नीच राशि का हो या पंचमेश बलहीन हो तो संतान बाधा होती है। यदि पंचमेश पुरुष ग्रह हो तो पुत्र का जन्म प्रथम होता है। स्त्री ग्रह पंचमेश हो तो प्रथम कन्या जन्मती है। पंचमेश व लग्नेश मित्र हो तो पुत्र आज्ञाकारी होगा। यदि पंचमेश व लग्नेश आपस में शत्रु हो तो पुत्र आज्ञाकारी नहीं होगा अर्थात पिता - पुत्र दोनों में व्देश रहेगा। बुध या बृहस्पति पंचमेश होकर केंद्र - त्रिकोण में हों या उच्चके हों तो विद्यावान होता है। नीचका या 6 - 8 या बारहवें भाव में पंचमेश होतो विद्याहीन या अल्प विद्या वाला होता है। पंचम स्थान में यदि बल हीन सूर्य हो तो जातक क्रोधी होता है और यदि निर्बली मंगल हो तो संतान होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। पंचम भाव में निर्बल चंद्रमा तथा निर्बली बुध हो तो कन्या संतान होती है और यदि पंचम स्थान में बृहस्पति हो तो श्रेष्ठ पुत्र होता है और यदि शुक्र पंचम स्थान में हो तो पुत्र चतुर होता है। नवांश कुंडली में पंचम भाव का अध्ययन करते समय यह देखना चाहिए कि कितने पाप ग्रह पंचम भाव को देख रहे हैं और क्या पंचम भाव पर शुभ ग्रहों की दृष्टि है या नहीं। यदि पाप ग्रहों का पंचम भाव पर प्रभुत्व है तो संतान हानि या गर्भ का क्षय होता है और यदि शुभ ग्रहों का प्रभुत्व है तो संतान हानि नहीं होती है। चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हों , दशम भाव में चंद्रमा हो तथा सप्तम भाव में शुक्र हो तो ऐसे व्यक्ति की संतान नहीं होती है।सूर्य तथा शुक्र एक साथ पंचम भाव में हो तो संतान हानि होती है । यदि शनि - मंगल या निर्बली सूर्य पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट अष्टम स्थान में हो तो संतान हानि होती है । पंचम स्थान में बलवान सूर्य हो तो एक पुत्र होता है तथा यदि पंचम स्थित सूर्य पर पंचम स्थान के स्वामी की दृष्टि हो या मित्र ग्रहों की दृष्टि हो तो 3 पुत्र होते हैं। बलवान चंद्रमा पंचम स्थान में हो तो दो या चार कन्या होती हैं । यदि पंचम स्थान या पंचमेश पुरुष ग्रहों के प्रभाव में हो तो प्रथम संतान पुत्र होगा और यदि स्त्री ग्रह का प्रभाव पंचम स्थान या पंचमेश पर हो तो कन्या संतान होती है।पुनः जिस वर्ष संतान होने को हो उस वर्ष सुदर्शन दशा के अनुसार यह देखना चाहिए कि सुदर्शन दशा से किस राशि का सुदर्शन आता है तथा जिस राशि का सुदर्शन आता है उस राशि का स्वामी या वह राशि पुरुष ग्रह के प्रभाव में है या स्त्री ग्रह के प्रभाव में इस प्रकार दोनों प्रकार से विचार करना चाहिए। यदि जिस जातक का जन्म होने वाला है उसका भाई या बहन है तो उसकी कुंडली में भी तृतीय स्थान का अध्ययन करना चाहिए उसमें देखना चाहिए कि पराक्रम या तृतीय भाव स्त्री या पुरुष में से किस प्रकार के ग्रहों के अधिक प्रभाव में है। ऐसा भली प्रकार विचार कर निर्णय करने से प्राप्त फलित अशुद्ध नहीं होता है ।

ज्योतिष के इच्छुक छात्रों द्वारा पूछे गए बहु उपयोगी महत्वपूर्ण प्रश्न और उन प्रश्नों के उत्तर यहां दिये जा रहे हैं-

प्रश्न ब्राह्मणों के लिए नाड़ी दोष विशेष रूप से कहा गया है इसका परिहार- उपाय क्या है ? उत्तर- नाड़ी दोष सभी के लिए होता है। लेकिन विशेषकर मध्य नाड़ी हानिकारक होती है तथा शास्त्र में यह लिखा है की विप्रों से अन्य के लिए पाश्व नाडी अर्थात आदि और अंत्य नाडी का विचार ना करें। इससे सिद्ध है कि मध्य नाड़ी का विचार सभी के लिए करना चाहिए। शास्त्र में उल्लेख है कि नक्षत्र के प्रथम चरण का चतुर्थ चरण से परस्पर वेध होता है तथा द्वितीय और तृतीय चरण का परस्पर वेध होता है। अतः यदि एक का प्रथम चरण और दूसरे का चतुर्थ चरण है या एक का द्वितीय चरणऔर दूसरे का तृतीय चरण है तो ऐसे में नाड़ी दोष हानिकारक होता है। इससे इतर नाड़ी दोष अल्प दोष कारक कहा गया है। जैसे एक का पहला चरण हो और दूसरे के नक्षत्र का दूसरा चरण हो या तीसरा चरण हो तो पाद वेध नहीं होता। इसी प्रकार एक का दूसरा चरण है और दूसरे का चौथा चरण है तो भी पाद वेध नहीं होगा और ऐसी स्थिति में परिहार हो जाता है किंतु साथ में यदि स्वर्ण नाड़ी का पूजन एवं सवा लाख महामृत्युंजय जप भी करा लिया जाए तो उत्तम होता है। जप के साथ होम भी कहा गया है किंतु यदि दशांश जप और करालिया जाए तो होम करने की भी आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार 1 लाख 37 हजार 500 महामृत्युंजय जप करवाने से नाड़ी दोष का परिहार भी हो जाता है। प्रश्न द्वितीय- जन्मपत्रिका देखकर विवाह किस वर्ष में होगा कैसे बताया जा सकता है ? उत्तर- विवाह का वर्ष बताने में पंचम भाव, सप्तम भाव, नवम भाव व चतुर्थ भाव देखकर वर्ष बताना चाहिए। सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि जिसके विवाह का आप वर्ष बताना चाहते हैं उसकी वर्तमान में आयु कितनी है तथा विंशोत्तरी दशा में महादशा किस ग्रह की है एवं अंतर्दशा किसी ग्रह की चल रही है। यदि नवम भाव का अधिपति मंगल है तो 27-28 वर्ष में विवाह हो जाता है। यदि सप्तम भाव में भी मंगल की ही राशि है तो भी यही विवाह के वर्ष होंगे। इसी प्रकार यदि नवम भाव में बुध की राशि है अर्थात मिथुन राशि है या कन्या राशि है अथवा सप्तम भाव में मिथुन राशि या कन्या राशि है अथवा पंचम भाव में मिथुन राशि या कन्या राशि है तो 32 वर्ष के आसन्न अवस्था में विवाह होता है। इसी प्रकार यदि सप्तम भाव में शनि की राशि है या नवम भाव में शनि की राशि है या पंचम भाव में शनि की राशि है तो 35 - 36 वर्ष के आसन्न अवस्था में विवाह होता है। यदि नवम भाव में शुक्र की राशि है या सप्तम भाव में शुक्र की राशि है तो 25 वर्ष के आसन्न अवस्था में विवाह होता है। इस प्रकार ग्रहों के दिव्य वर्षों से विवाह का वर्ष बताना चाहिए। इसी के साथ विंशोत्तरी दशा में किस ग्रह की अंतर्दशा चल रही है और उसका सप्तम भाव या नवम भाव या पंचम भाव या चतुर्थ भाव से कैसा संबंध है यह देखकर विंशोत्तरी दशा के आधार पर भी विवाह का वर्ष बताया जा सकता है।इसके साथ कुछ सहायक तत्वों का भी सहारा लिया लेना चाहिए। जैसे कि गोचर में गुरु कहां चल रहा है। विशेषकर कन्याओं की कुंडली में यदि गोचर का गुरु पंचम दृष्टि या सप्तम दृष्टि या नवम दृष्टि से सप्तम स्थान को देख रहा है तो उस वर्ष में विवाह हो सकता है। पुनः कुंडली के सप्तम भाव में स्थित ग्रहों पर भी विचार करना चाहिए। यदि कुंडली के सप्तम स्थान में शनि या राहु या केतु या मंगल या सूर्य क्रूर पाप ग्रह स्थित है तो यह ग्रह विवाह में बाधा उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में ग्रहों का उपचार करवाना चाहिए।जप- दान या रत्न धारण करने से ग्रहों का उपचार हो जाता है।

श्री पीतांबर पंचांग

दिनांक 2 अप्रैल सन् 1984 ईस्वी से दिनांक 29 मार्च सन् 2044 ईस्वी तक का है तथा इस पंचांग में भविष्य के विवाह मुहूर्त एवं जन्मपत्रिका में लिखने योग्य फलादेश की मुख्य बातें भी दी गई हैं ।दैनिक ग्रहस्पष्ट युक्त सूक्ष्म दृग्गणित से तैयार 1776 पेज का यह श्री पीतांबर पंचांग ज्योतिष का कार्य करने वालों के लिए एवं विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी है। मूल्य ₹ 1550/-)

Lord Ganesha

कुंडलि बनाने का कार्य कैसे होता है

जन्म कुंडली चार्ट को अलग-अलग संकेतों और ग्रहों से मिलाकर 12 घरों में विभाजित किया गया है। चार्ट पर, पहला घर अग्रवर्ती से शुरू होता है और बाकी घर घड़ी की विपरीत दिशा में गिने जाते हैं। ये घर किसी व्यक्ति की स्थिति और ज्योतिष संबंधी पहलुओं को परिभाषित करते हैं। कुंडली में हर घर जीवन की एक अलग संभावना का प्रतिनिधित्व करता है, जैसे कैरियर, रिश्ते, पैसा और अन्य अधिक समान पहलु ।

इसके अलावा, ग्रह ग्रहों की स्थिति के आधार पर दिन, महीना और वर्ष के रूप में विभिन्न राशियों में स्थानांतरित होते रहते हैं। ये ग्रह विभिन्न घटनाओं और संभावनाओं को दर्शाते हैं। जन्म कुंडली को देखते हुए, एक ज्योतिषी ग्रहों के दृश्य के आधार पर भविष्य की भविष्यवाणी कर सकता है। भविष्य के बारे में भविष्यवाणी करने के लिए ज्योतिषियों द्वारा विभिन्न सिद्धांतों का परीक्षण और वैदिक ज्योतिष का अभ्यास किया जाता है।



कुंडली कैसे उपयोगी है

कुंडली बनाना एक व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जन्म कुंडली को नेटल चार्ट या जन्मपत्री के नाम से भी जाना जाता है जो एक व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कुंडली केवल पेशेवरों द्वारा ही बनाई जानी चाहिए क्योंकि वे आपके भविष्य और विशेषता/लक्षणों को महान सटीकता के साथ बता सकते हैं। एक कुंडली एक व्यक्ति को पर्याप्त लाभ प्रदान कर सकती है, जैसे:

  • अपनी कुंडली की सहायता से, आप आसानी से अपने भविष्य की भविष्यवाणी कर सकते हैं।
  • आपकी कुंडली के अनुसार, आप सबसे उपयुक्त कैरियर विकल्प का अनुमान कर सकते हैं। यह आपके व्यक्तित्व लक्षण और संकेतों पर निर्भर करता है।
  • कुंडली आपको अपने व्यक्तित्व लक्षण, रिश्ते, कैरियर, वित्त और जीवन के अन्य पहलुओं के बारे में विस्तृत जानकारी दे सकती है।
  • कुंडली की मदद से आप अपने भाग्यशाली रत्न, भाग्यशाली रंग और भाग्यशाली संख्या का अनुमान लगा सकते हैं।
  • आप अपने भविष्य के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, समस्याओं की गहराई को कम करने के लिए उपाय और समाधान भी पा सकते हैं।
  • कुंडली जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल समय की जानकारी भी प्रदान करती है।
Lord Ganesha
English